Monday, December 27, 2010

लक्ष्य

ओ ! वीर
सिकोड़ कर विचारों को
क्या कभी लक्ष्य आ पाएगा ?
स्वीकार किया कि
पथ में शूल गढ़े हैं
मौसम ज्वालामय है
और.... साथ में....
कोई नहीं है –
पर.... खाकर ठोकर
पत्थर से लड़ना
तो..... बुद्धिमता नहीं
उठ / बढ़
पत्थर क्या, पहाड़ क्या ?
तुझे अब नक्षत्र भी रोक
ना पाएँगे……
निश्चय सुदृढ़ जो कर लिया
बूँद भर भी विश्वास
और धैर्य.....
उस साहस का जन्मदाता होगा
जो लक्ष्य को....
तुझ तक ले आएगा..... ।

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