Friday, February 4, 2011

मन

अब...
मालूम हो गया मुझे कि
कौन है.... जिसने
बूँद का लालच दे
मुझसे सागर छीन लिया
होने ना दी मुलाक़ात
मेरी मुझसे और उससे
नभ से विस्तरित विचारों को
छुपा दिया था जिसने
डुबा दिया था
उदित होता दिनकर
खपा दिया था जीवन
बताकर कि
कीचड़ में काली
मोहर पाएगी.....
जो मेरा अपना
मुझे पराया कर रहा था
स्वयं से, दौड़ा
रहा था पीछे
परछाई के पर....
समझा ना इतना की
चल रवि कि ओर
वो छाया तो
पीछे आएगी…..
जान गया हूँ ,
पहचान गया हूँ इसलिए
अपनी नज़रें उससे मोड़ दी ।
बंधनों के कारण का
निवारण कर मैंने
मन की माननी अब छोड़ दी ।